Saturday 31 May, 2008

मारवाड़ी समाज

मारवाड़ी समाज <samajvi...@gmail.com> wrote:>
'धरती धौरां री... -शम्भु चौधरी- कोलकात्ता 15.5.2008 : आज शाम पाँच बजे श्री कन्हैयालाल सेठिया जी के कोलकात्ता स्थित उनके निवास स्थल 6, आशुतोष मखर्जी रोड जाना था । 'समाज विकास' का अगला अंक श्री सेठिया जी पर देने का मन बना लिया था, सारी तैयारी चल रही थी, मैं ठीक समय पर उनके निवास स्थल पहुँच गया। उनके पुत्र श्री जयप्रकाश सेठिया जी से मुलाकत हुई। थोड़ी देर उनसे बातचीत होने के पश्चात वे, मुझे श्री सेठिया जी के विश्रामकक्ष में ले गये । विस्तर पर लेटे श्री सेठिया जी का शरीर काफी कमजोर हो चुका है, उम्र के साथ-साथ शरीर थक सा गया है, परन्तु बात करने से लगा कि श्री सेठिया जी में कोई थकान नहीं । उनके जेष्ठ पुत्र भाई जयप्रकाश जी बीच में बोलते हैं, - '' थे थक जाओसा....... कमती बोलो ! '' परन्तु श्री सेठिया जी कहाँ थकने वाले, कहीं कोई थकान उनको नहीं महसूस हो रही थी, बिल्कुल स्वस्थ दिख रहे थे । बहुत सी पुरानी बातें याद करने लगे। स्कूल-कॉलेज, आजादी की लड़ाई, अपनी पुस्तक ''अग्निवीणा'' पर किस प्रकार का देशद्रोह का मुकदमा चला । जयप्रकाश जी को बोले कि- वा किताब दिखा जो सरकार निलाम करी थी, मैंने तत्काल देवज्योति (फोटोग्रफर) से कहा कि उसकी फोटो ले लेवे । जयप्रकाश जी ने ''अग्निवीणा'' की वह मूल प्रति दिखाई जिस पर मुकदमा चला था । किताब के बहुत से हिस्से पर सरकारी दाग लगे हुऐ थे, जो इस बात का आज भी गवाह बन कर सामने खड़ा था । सेठिया जी सोते-सोते बताते हैं - '' हाँ! या वाई किताब है जीं पे मुकदमो चालो थो....देश आजाद होने...रे बाद सरकार वो मुकदमो वापस ले लियो ।'' थोड़ा रुक कर फिर बताने लगे कि आपने करांची में भी जन अन्दोलन में भाग लिया था । स्वतंत्रा संग्राम में आपने जिस सक्रियता के साथ भाग लिया, उसकी सारी बातें बताने लगे, कहने लगे ''भारत छोड़ो आन्दोलन'' के समय आपने करांची में स्व.जयरामदास दौलतराम व डॉ.चैइथराम गिडवानी जो कि सिंध में कांग्रेस बड़े नेताओं में जाने जाते थे, उनके साथ करांची के खलीकुज्जमा हाल में हुई जनसभा में भाग लिया था, उस दिन सबने मिलकर स्व.जयरामदास दौलतराम व डॉ.चैइथराम गिडवानी के नेतृत्व में एक जुलूस निकाला था, जिसे वहाँ की गोरी सरकार ने कुचलने के लिये लाठियां बरसायी, घोड़े छोड़ दिये, हमलोगों को कोई चोट तो नहीं आयी, पर अंग्रेजी सरकार के व्यवहार से मन में गोरी सरकार के प्रति नफरत पैदा हो गई । आपका कवि हृदय काफी विचलित हो उठा, इससे पूर्व आप ''अग्निवीणा'' लिख चुके थे। बात का क्रम टूट गया, कारण इसी बीच शहर के जाने-माने> समाजसेवी श्री सरदारमल कांकरियाजी आ गये। उनके आने से मानो श्री सेठिया> जी के चेहरे पे रौनक दमकने लगी हो । वे आपस में बातें करने लगे। कोई> शिथिलता नहीं, कोई विश्राम नहीं, बस मन की बात करते थकते ही नहीं, इस> बीच जयप्रकाश जी से परिवार के बारे में बहुत सारी बातें जानने को मिली।> श्री जयप्रकश जी, श्री सेठिया जी के बड़े पुत्र हैं, छोटे पुत्र का नाम> श्री विनय प्रकाश सेठिया है और एक सुपुत्री सम्पतदेवी दूगड़ है । महाकवि> श्री सेठिया जी का विवाह लाडणू के चोरडि़या परिवार में श्रीमती धापूदेवी> सेठिया के साथ सन् 1939 में हुआ । आपके परिवार में दादाश्री स्वनामधन्य> स्व.रूपचन्द सेठिया का तेरापंथी ओसवाल समाज में उनका बहुत ही महत्वपूर्ण> स्थान था। इनको श्रावक श्रेष्ठी के नाम से संबोधित किया जाता है। इनके> सबसे छोटे सुपुत्र स्व.छगनमलजी सेठिया अपने स्व. पिताश्री की भांति> अत्यन्त सरल-चरित्रनिष्ठ-धर्मानुरागी, दार्शनिक व्यक्तित्व के धनी थे ।> समाज सेवा में अग्रणी, आयुर्वेद का उनको विशेष ज्ञान था ।> श्री सेठिया जी का परिवार 100 वर्षों से ज्यादा समय से बंगाल में है ।> पहले इनका परिवार 199/1 हरीसन रोड में रहा करता था । सन् 1973 से> सेठियाजी का परिवार भवानीपुर में 6, आशुतोष मुखर्जी रोड, कोलकात्ता-20> के प्रथम तल्ले में निवास कर रहा है। इनके पुत्र ( श्री सेठियाजी से> पूछकर ) बताते हैं कि आप 11 वर्ष की आयु में सुजानगढ़ कस्बे से कलकत्ता> में शिक्षा ग्रहन हेतु आ गये थे। उन्होंने जैन स्वेताम्बर तेरापंथी> स्कूल एवं माहेश्वरी विद्यालय में प्रारम्भिक शिक्षा ली, बाद में रिपन> कॉलेज एवं विद्यासागर कॉलेज में शिक्षा ली । 1942 में द्वितीय विश्वयुद्ध> के समय शिक्षा अधूरी छोड़कर पुनः राजस्थान चले गये, वहाँ से आप करांची> चले गये । इस बीच हमलोग उनके साहित्य का अवलोकन करने में लग गये। सेठिया> जी और सदारमल जी आपस में मन की बातें करने में मसगूल थे, मानो दो दोस्त> कई वर्षों बाद मिले हों । दोनों अपने मन की बात एक दूसरे से आदान-प्रदान> करने में इतने व्यस्त हो गये कि, हमने उनके इस स्नेह को कैमरे में कैद> करना ही उचित समझा। जयप्रकाश जी ने तब तक उनकी बहुत सारी सामग्री मेरे> सामने रख दी, मैंने उन्हें कहा कि ये सब सामग्री तो राजस्थान की अमानत> है, हमें चाहिये कि श्री सेठिया जी का एक संग्राहलय बनाकर इसे सुरक्षित> कर दिया जाए, बोलने लगे - 'म्हाणे कांइ आपत्ती' मेरा समाज के सभी वर्गों> से, सरकार से निवेदन है कि श्री सेठियाजी की समस्त सामग्री का एक> संग्राहल बना दिया जाना चाहिये, ताकि हमारी आनेवाली पीढ़ी उसे देख सके,> कि कौन था वह शख्स जिसने करोड़ों दिलों की धड़कनों में अपना राज जमा लिया> था।> किसने 'धरती धौरां री...' एवं अमर लोक गीत 'पातल और पीथल' की रचना की> थी!> कुछ देर बाद श्री सेठिया जी को बिस्तर से उठाकर बैठाया गया, तो उनका> ध्यान मेरी तरफ मुखातिफ हुआ, मैंने उनको पुनः अपना परिचय बताने का प्रयास> किया, कि शायद उनको याद आ जाय, याद दिलाने के लिये कहा - शम्भु! -> मारवाड़ी देस का परदेस वालो - शम्भु....! बोलने लगे... ना... अब तने लोग> मेरे नाम से जानगा- बोले... असम की पत्रिका म वो लेख तूं लिखो थो के?,> मेरे बारे में...ओ वो शम्भु है....तूं.. अपना हाथ मेरे माथे पर रख के> अपने पास बैठा लिये। बोलने लगे ... तेरो वो लेख बहुत चोखो थो। वो राजु> खेमको तो पागल हो राखो है। मुझे ऐसा लग रहा था मानो सरस्वती बोल रही हो ।> शब्दों में वह स्नेह, इस पडाव पर भी इतनी बातें याद रखना, आश्चर्य सा> लगता है। फिर अपनी बात बताने लगे- 'आकाश गंगा' तो सुबह 6 बजे लिखण> लाग्यो... जो दिन का बारह बजे समाप्त कर दी। हम तो बस उनसे सुनते रहना> चाहते थे, वाणी में सरस्वती का विराजना साक्षात् देखा जा सकता था। मुझे> बार-बार एहसास हो रहा था कि यह एक मंदिर बन चुका है श्री सेठियाजी का घर> । यह तो कोलकाता वासी समाज के लिये सुलभ सुयोग है, आपके साक्षात् दर्शन> के, घर के ठीक सामने 100 गज की दूरी पर सामने वाले रास्ते में नेताजी> सुभाष का वह घर है जिसमें नेताजी रहा करते थे, और ठीक दक्षिण में 300 गज> की दूरी पर माँ काली का दरबार लगा हो, ऐसे स्थल में श्री सेठिया जी का> वास करना महज एक संयोग भले ही हो, परन्तु इसे एक ऐतिहासिक घटना ही कहा जा> सकता है। हमलोग आपस में ये बातें कर रहे थे, परन्तु श्री सेठियाजी इन> बातों से बिलकुल अनजान बोलते हैं कि उनकी एक कविता 'राजस्थान' (हिन्दी> में) जो कोलकाता में लिखी थी, यह कविता सर्वप्रथम 'ओसवाल नवयुवक' कलकत्ता> में छपी थी, मानो मन में कितना गर्व था कि उनकी कविता 'ओसवाल नवयुवक'> में छपी थी। एक पल मैं सोचने लगा मैं क्या सच में उसी कन्हैयालाल सेठिया> के बगल में बैठा हूँ जिस पर हमारे समाज को ही नहीं, राजस्थान को ही नहीं,> सारे हिन्दुस्थान को गर्व है।> मैंने सुना है, कि कवि का हृदय बहुत ही मार्मिक व सूक्ष्म होता है, कवि> के भीतर प्रकाश से तेज जगमगता एक अलग संसार होता है, उसकी लेखनी ध्वनि से> भी तेज रफ्तार से चलती है, उसके विचारों में इतने पड़ाव होते हैं कि सहज> ही कोई उसे नाप नहीं सकता, श्री सेठियाजी को देख ये सभी बातें स्वतः> प्रमाणित हो जाती है। सच है जब बंगलावासी रवीन्द्र संगीत सुनकर झूम उठते> हैं, तो राजस्थानी श्री कन्हैयालाल सेठिया के गीतों पर थिरक उठता है,> मयूर की तरह अपने पंख फैला के नाचने लगता है। शायद ही कोई ऐसा राजस्थानी> आपको मिल जाये कि जिसने श्री सेठिया जी की कविता को गाया या सुना न हो ।> इनके काव्यों में सबसे बड़ी खास बात यह है कि जहाँ एक तरफ राजस्थान की> परंपरा, संस्कृति, एतिहासिक विरासत, सामाजिक चित्रण का अनुपम भंडार है,> तो वीररस, श्रृंगाररस का अनूठा संगम भी जो असाधारण काव्यों में ही देखने> को मिलता है। बल्कि नहीं के बराबर ही कहा जा सकता है। हमारे देश में> दरबारी काव्यों की रचना की लम्बी सूची पाई जा सकती है, परन्तु, बाबा> नागार्जुन, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चैहान, निराला, हरिवंशराय> बच्चन, भूपेन हजारिका जैसे गीतकार हमें कम ही देखने को मिलते हैं। श्री> सेठिया जी के काव्यों में हमेशा नयापन देखने को मिलता है, जो बात अन्य> किसी में भी नहीं पाई जाती, कहीं कोई बात तो जरूर है, जो उनके काव्यों> में हमेशा नयापन बनाये रखने में सक्षम है। इनके गीतों में लय, मात्राओं> का जितना पुट है, उतना ही इनके काव्यों में सिर्फ भावों का ही नहीं,> आकांक्षाओं और कल्पनाओं की अभिनव अभिव्यक्ति के साथ-साथ समूची संस्कृति> का प्रतिबिंब हमें देखने को मिलता है। लगता है कि राजस्थान का सिर गौरव> से ऊँचा हो गया हो। इनके गीतों से हर राजस्थानी इठलाने लगता हैं। देश-> विदेश के कई प्रसिद्ध संगीतकारों-गीतकारों ने, रवींद्र जैन से लेकर> राजेन्द्र जैन तक, सभी ने इनके गीतों को अपने स्वरों में पिरोया है।> 'समाज विकास' का यह अंक यह प्रयास करेगा कि हम समाज की इस अमानत को> सुरक्षित रख पाएं । श्री कन्हैयालाल सेठिया न सिर्फ राजस्थान की धरोहर> हैं बल्कि राष्ट्र की भी धरोहर हैं। समाज विकास के माध्यम से हम राजस्थान> सरकार से यह निवेदन करना चाहेगें कि श्री सेठियाजी को इनके जीवनकाल तक न> सिर्फ राजकीय सम्मान मिले, इनके समस्त प्रकाशित साहित्य, पाण्डुलिपियों> व अन्य दस्तावेजों को सुरक्षित करने हेतु उचित प्रबन्ध भी करें।> -

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शम्भु चौधरी
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[ Script code: Kanhaiyalal Sethia / कन्हैयालाल सेठिया ]


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Tuesday 27 May, 2008

आरूशी - खेमराज हत्या




नोएडा के सनसनी खेज आरूशी - खेमराज हत्याकांड की जांच कर रही उतत्र प्रदेश पोलीस द्वारा जल्दबाजी में और बीना कीसी सबूत के आरूशी-खेमराज और राजेश तलवार-डॉ अनिता के बीच सम्बन्ध होने की बात करना अनैतिक है।यदी यह बात ग़लत साबीत हुई तो उनकी मानहानी के लिए कौन जीम्मेदार होगा?क्या सरकार इसकी भरपाई कर सकेगी?


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राक्षस का मुखौटा




रामदास जी ने अपने पुराने मकiन को तुड़वा कर नया माकन बनवाया !जब तक माकनबना उनके परिवार प्रत्येक सदस्य कारीगरों के पास बारी-बारी से बैठा रहता !कहीं कोई कमी रहती तो कारीगरों को तुरंत टोका जाता ! खैर किसी तरह मकानबन कर तैयार हो गया !रंग -रोगन भी हो गया ! सुबह देखा तो उनके मकान कीबाहरी दीवार पर भयानक शक्ल वाला बडा सा राक्षस का मुखोटा लगा था !उस कीशक्ल इसी थी कि राह चलते प्रत्येक व्यकित कि निगाहें उस पर पडती थी !एकदिन बातों-बातों में इस का राज एवम लाभ पूछा तो उन्होंने ने बडे संतोषजनकभाव से बताया कि इससे घर को बुरी नज़र नहीं लगती है !उनकी इस बात पर मुझेहँसी आ गयी !मुझे हँसता देख उन्होंने बुरा सा मुंह बनाया और कहा कि आप कोपता नहीं है इस लिए हंस रहें हो !मैनें इसका कारण पूछा तो वे इतना हीजवाब दे पाए कि सब लगाते हैं !हम अनेक प्रचलित बातों , परम्पराओं का कारण जाने बिना मानते रहते हैंजबकि हो सकता है वे उचित न हों !इसी प्रकार राक्षस का मुखोटा लगाना किसीभी प्रकार उचित नहीं मन जा सकता है !यह ठीक उसी प्रकार है जैसे कोईलुटेरे को घर दी सुरक्षा सोंप दे ! राक्षस तामसिक तत्व है !इससेनकारात्मक उर्जा उत्पन्न होती है !धीरे-धीरे यह नकारात्मक उर्जा संचित होकर घर का वातावरण बिगड़ देती है ! घर में कलह ,तनाव का वातावरण बन जाताहै !जिस घर को बुरी नज़र से बचाना चाहते थे उसी में आशान्ति छा जाती है !जिस प्रकार समान पेशे से जुड़े लोगों में तुरंत मित्रता हो जाती है उसीप्रकार नकारात्मक उर्जा भी नकारात्मक उर्जा से तुरंत मिल जाती है !वायुमंडल में व्याप्त राक्षसी उर्जा अपने सम्बन्धी को देख वहाँ नहींरुकेगी इस बात कि क्या गारंटी है ! बजाए इस के कि राक्षस का मुखोटा लगायाजाए हमारे शुभ मांगलिक प्रतीक चिन्ह का प्रयोग करना ज्यादा प्रशस्तहोगा ! स्वस्तिक ,ॐ देवी ,त्रिशूल या गणेश जी जो अमृत कि वर्षा करते हैंको भवन के बाहर लगाया जा सकता है ! जब रावण की लंका की रक्षा, लंकिनीनामक राक्षसी [जो कि वहाँ कि पहरेदार थी ] ही नहीं कर सकी जिसे मुखोटे काप्रतीक मान सकतें हैं तो हमारे घर कि रक्षा ये राक्षस के मुखोटे क्या करसकेंगे !



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"astrologer rakesh"



Monday 26 May, 2008

by astrologer rakesh

समय से पहले और भाग्य से ज्यादा कभी नहीं मिलता , अक्सर लोगों की ऐसीधारणा है पर शायद उन्हें यह पता नहीं है कि भाग्य है क्या ?मेरे विचारसे" भाग्य अपने द्वारा किए गए कर्म एवम पुरुषार्थ का प्रतिफल है !कर्म केबिना भाग्य कि कल्पना नहीं कि जा सकती है ! हमारी संस्क्र्ती पुनर्जन्मको मानती है और किए गए कर्मों का फल इस जन्म में या अगले जन्म में भोगनापड़ता है !जिस प्रकार किसी गेंद को किसी दीवार पर फ़ेंक कर मारा जाए तो वहफेंकने वाले के पास वापस आती है उसी प्रकार व्यकित द्वारा किए गए कर्म काप्रतिफल भी उसे वापस प्राप्त होता है !यदि वह व्यकित वहाँ उपस्तिथ रहताहै तो उसे वह फल तुरंत उसी जन्म में मिल जाता है और यदि उसकी आयु पूर्णहो गयी हो तो वह फल संचित हो जाता है और उस समय तक सुप्त रहता है जब तकवह व्यकित पुन जन्म नही ले लेता !जैसे ही वह जन्म लेता है उसके द्वाराकिए गए शुभाशुभ कर्म के अनुसार फल मिलना शुरू हो जाता है! यदि ऐसा नहींहोता तो एक ही माता-पिता से जन्म लेने वाले भाई -बहिनों का भाग्य अलग-अलगनहीं होता !ऐसा प्राय देखा जाता है कि पहले बच्चे के जन्म के समय माता-पिता का आर्थिक पक्ष कमजोर होता है और वह बालक अभावों में पलता है जबकिउसी परिवार में जब दूसरा बालक पैदा होता है तो उसे सर्व सुविधा मिल जातीहै !क्यों ? पहले बालक ने तो इस जन्म में क्या बुरा किया और दुसरे बालकने क्या अच्छा किया जो उनको ऐसा अंतर देखने को मिला!यह अवश्य उनके पूर्वजन्म के किए गए कर्मों का फल था जो इस जन्म में भाग्य बन कर मिला !भाग्यएवम कर्म एक प्रकार से दो कदम हैं जिनमें भाग्य का कदम आगे निकल जाता हैतो फल तुरंत प्राप्त हो जाता है और कर्म का कदम आगे निकल जाता है औरभाग्य का पीछे रह जाता है तो भरपूर मेहनत के बाद भी प्राप्ति नहीं पातीहै ! कर्म ही जीवन है ! हम अपने भाग्य के निर्माता खुद हो कर" समय सेपहले एवम भाग्य से ज्यादा नहीं मिलता कि उकित को नकार सकते है !भाग्यवादीन होकर कर्मावादी बने एवम भविष्य अपनी मुट्ठी में कर लें !

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"छोड़ो ना!...कौन पूछता है?"

"छोड़ो ना!...कौन पूछता है?"

***राजीव तनेजा***"एक...दो...तीन....बारह...पंद्रह...सोलह..."कितनी देर से आवाज़े लगा लगा के थक गई हूँ लेकिन जनाब हैँ कि अपनी ही धुन में मग्न पता नहीं क्या गिनती गिने चले जा रहे हैँ"..."कहीं मुँशी से हिसाब लेने में तो गलती नहीं लग गयी?"..."नहीं".."फिर ये उँगलियों के पोरों पर क्या गिना जा रहा है?"..."क्क..कुछ महीं?"..."हुँह!..सब बेफाल्तू के काम तुम्हें ही आते हैँ"...."कुछ और नहीं सूझा तो लगे गिनती गिनने"...."अब बीवी को कैसे बताता कि मैँ अपनी एक्स माशूकाओं को गिनने में बिज़ी था"..."सो!...चुपचाप उसकी सुनने के अलावा और कोई चारा भी कहाँ था मेरे पास?".."अरे!..गिनती के बजाय अगर ढंग से पहाड़े रट लो तो कम से कम चुन्नू की ट्यूशन के पैसे तो बचें लेकिन...जनाब को इन मुय्यी बेफाल्तू की कहानियों को लिखने से फुरसत मिले तब ना"..."क्लास टीचर ने तो साफ कह दिया है कि इस बार अगर फाईनल टर्म में नम्बर अच्छे नहीं आए तो अगली क्लास में बच्चे को चढाना मुश्किल हो जाएगा".."पता भी है कि वो शारदा की बच्ची अपनी चम्पा को बरगला के वापिस झारखंड ले गयी है"..."कौन शारदा?"..."अरे वही!..प्लेसमैंट एजेंसी वाली कलमुँही...और कौन"..."अब ये मत पूछ बैठना कि कौन चम्पा?"..."हाँ!...कौन चम्पा?"मैँ कुछ सोचता हुआ बोला..."अरे!...अपनी कामवाली बाई चम्पा को भी नहीं जानते?"..."पता नहीं किन ख्यालों में खोए रहते हो कि ना दीन की खबर ना ही दुनिया का कोई फिक्र".."ओह!...क्या हुआ उसको?"..."रोज़ तो फोन आ रहा था शारदा की बच्ची का कि...साल पूरा हो गया है"..."नया एग्रीमैंट बनेगा और इस बार चम्पा को गाँव ले के जाऊँगी"..."अरे यार!...तसल्ली करवानी होती है इन्हें इनके माँ-बाप को कि देख लो...ठीकठाक भली चंगी है"..."तभी तो इनकी कमाई होती है और नई मछलियाँ फँसती हैँ इनके जाल में".."तो एक महीने बाद नहीं करवा सकती थी तसल्ली?"..."लाख समझाया कि अगले महीने माँ जी की आँख का आप्रेशन होना है"..."कम से कम तब तक के लिए तो रहने दे इसे लेकिन पट्ठी ऐसी अड़ियल निकली कि लाख मनाने पर भी टस से मस ना हुई"..."ले जा के ही मानी"..."तो क्या डाक्टर ने कहा था कि चम्पा की डाईरैक्ट फोन पे बात करवा दो शारदा से?"...."और क्या करती?"..."बार-बार फोन कर के मेरा सिर जो खाए जा रही थी कि बात करवा दो...बात करवा दो"..."पता नहीं अब कैसे मैनेज होगा सब?"..."क्यों?...क्या दिक्कत है?"..."दिक्कत?"..."एक हो तो बताऊँ...एक-एक दिन में दस-दस तो रिश्तेदार आते हैँ तुम्हारे यहाँ".."तो?"..."कभी इसके लिए चाय बनाओ तो कभी उसके लिए शरबत घोलो"..."इनसे किसी तरह निबटूँ तो पिताजी भी बिना सोचे समझे गरमागरम पकोड़ों की फरमाईश कर डालते हैँ"..."अरे यार!..बचपन से शौक है उन्हें पकोड़ों का"..."तो मैँ कहाँ मना करती हूँ कि शौक ना पूरे करें?"..."कितनी बार कह चुकी हूँ कि 'माईक्रोवेव' ले दो...'माईक्रोवेव' ले दो लेकिन...ना आप पर और ना ही पिताजी पर कोई असर होता है मेरी बातों का"..."क्या करना है माईक्रोवेव का?"..."पता भी है कि एक मिनट में ही सब चीज़ें गर्म हो जाती हैँ उसमें"..."तो?"..."अपना...एक ही बार में किलो...दो किलो पकोड़े तल के धर दिए और बाद में आराम से गरम किए और परोस दिए"...."सिर्फ पकोड़ों भर के लिए ही माईक्रोवेव चाहिए तुम्हें?"..."नहीं!...अगर मेरी चलने दोगे तो एक बार में ही चाय की पूरी बाल्टी उबाल के रख दूँगी कि....लो!..आराम से सुड़को"..."सब स्साले!...मुफ्तखोर...ताश पीटने को यहीं जगह मिलती है".."तो?"..."इतना भी नहीं होता किसी से कि कोई मेरी थोड़ी बहुत हैल्प ही कर दे".."सारा काम मुझ अकेली को ही करना पड़ता है"..."क्यों?...कल जो पिताजी आम काटने में तुम्हारी हैल्प कर रहे थे...वो क्या था?"..."हाँ!..वो काट रहे थे और तुम बेशर्मों की तरह ढीठ बन के दूसरी तरफ मुँह कर 'लाफ्टर चैलैंज' का आनन्द लेते हुए दीददे फाड़ रहे थे"..."तो क्या?..मैँ भी उनकी तरह अपने हाथ लिबलिबे कर लेता?"..."ये वेल्ला शौक नहीं पाला है मैँने कि कोई काम-धाम ना हुआ तो बैठ गए पलाथी मार के जनानियों की तरह मटर छीलने"..."इसमें कौन सी बुरी बात है?"..."कह दिया ना!...अपने बस का रोग नहीं है ये"..."हुँह!...बस का रोग नहीं है"..."मेरी शर्म नहीं है तो ना सही लेकिन पिताजी की ही थोड़ी मदद कर देते तो घिस नहीं जाना था तुमने"... "मैँ तो तंग आ गई हूँ तुम से और तुम्हारे रिश्तेदारों से"..."तुम तो यार!..ऐसे ही छोटी सी बात का बतंगड़ बनाने पे तुली हो"..."छोटी सी बात?"..."एक दिन चौके में गुज़ार के दिखा दो तो मानूँ"..."पसीने से लथपथ बुरा हाल ना हो जाए तो कहना"..."एक बात बताओ"..."पूछो"..."वैसे ऐसी बेहूदी राय तुम्हें किस उल्लू के चरखे ने दी थी?".."तुमसे शादी करने की?"..."नहीं"..."फिर?"..."यही शमशान घाट के नज़दीक प्लाट खरीद अपना घर बनाने की"..."तुम भी तो बड़ी राज़ी खुशी तैयार हो गयी थी कि चलो शमशान घाट के बाजू में घर होने से अनचाहे मेहमानों से छुटकारा तो मिलेगा"..."वोही तो!...लेकिन यहाँ तो जिसे देखो मुँह उठाता है और सीधा हमारे घर चला आता है"..."घर...घर ना हुआ ...सराय हो गई"..."इस मुय्ये शमशान से तो अच्छा था कि तुम किसी गुरूद्वारे या मन्दिर के आसपास घर बनाते"..."उससे क्या होता?"..."सुबह शाम अपने इष्ट को मत्था टेक घंटियों की खनकार के बीच माला जपती और...आए-गयों को प्रसाद में गुरू के लंगर छका खुश कर देती"...."कम से कम रोटियाँ का ये बड़ा ढेर बनाने से तो तुम्हें मुक्ति मिल जाती"मैँ हाथ फैला रोटियों के ढेर का साईज़ बताते हुए बोला..."और नहीं तो क्या?"..."तुम तो अपना मज़े से काम पे चले जाते हो...पीछे सारी मुसीबतें मेरे लिए छोड़ जाते हो"..."तो क्या काम पे भी ना जाऊँ?"..."ये मैँने कब कहा?"..."मेरे सामने कोई मेहमान आए तो मैँ कुछ ना कुछ कर के सिचुएशन को हैंडल भी कर लूँ लेकिन...अब अगर कोई मेरी पीठ पीछे आ धमके तो इसमें मैँ क्या कर सकता हूँ?"..."कर क्यों नहीं सकते?...साफ-साफ मना तो कर सकते हो अपने रिश्तेदारों को कि हमारे यहाँ ना आया करें"..."क्या बच्चों जैसी बातें करती हो?"..."ऐसे भी भला किसी को मना किया जाता है?"..."ये तो अपने आप समझना चाहिए उन लोगों को"..."साफ क्यों नहीं कहते कि तुम में हिम्मत नहीं है"..."अगर तुम्हारे बस का नहीं है तो मैँ बात करती हूँ"..."कुछ तो शर्म होनी चाहिए कि नहीं?"..."ना दिन देखते हैँ और ना ही रात"..."बाप का राज समझ के जब मन करता है...तब आ धमकते हैँ"..."अभी परसों की ही लो...तुम्हारे दूर के चाचा आए तो थे अपने मोहल्ले के धोबी के दामाद की मौत पे लेकिन.. अपनी लाडली बहू को छोड़ गए मेरे छाती पे मूंग दलने".."अरे!..तबियत ठीक नहीं थी उसकी...अपने साथ ले जा के क्या करते?".."हुँह!...तबियत ठीक नहीं थी"... ."अगर तबियत ठीक नहीं थी तो डाक्टर ने नहीं कहा था कि यूँ बन-ठन के किसी के घर जा के डेरा जमाओ".."सब ड्रामा है...निरा ड्रामा"..."देखा नहीं था कि जब आई थी तो कैसे चुप-चुप......हाँ-हूँ के अलावा कोई और बोल-बचन ही नहीं फूट रहा था ज़बान से"..."लेकिन ससुर के जाते ही पट्ठी चौड़ी हो के ऐसे पसर गई सोफे पे कि बस पूछो मत"..."उसके बाद तो ऐसी शुरू हुई कि बिना रुके लगातार बोलती चली गई...चबड़...चबड़"..."तब तक चुप नहीं हुई जब तक सामने ला के कचौड़ी और समोसे नहीं धर दिए"..."बड़ी फन्ने खाँ समझती है अपने आपको".."आखिर कह क्या रही थी?"..."ये पूछो कि क्या नहीं कह रही थी".."कभी अपने सास-ससुर की चुगली...तो कभी ननद जेठानी को लेकर हाय तौबा"..."उनसे निबटी तो अपनी तबियत का रोना ले के बैठ गयी".. "हाय!..मेरा तो 'बी पी'(ब्लड प्रैशर) लो हो गया है"..."हाय!...मेरे घुटनों में दर्द रहने लगा है"..."उफ!..मेरे सलोने चेहरे पे कहाँ से आ गया ये मुय्या पिम्पल?"..."देखो!...मेरे चेहरे पे कोई रिंकल तो नहीं दिखाई दे रहे ना?"..."अरे!...दिखण...भाँवे ना दिखण...मैणूँ अम्ब लैँणा है?(दिखें ना दिखें...मुझे आम लेना है?""कल की बुड्ढी होती आज बुड्ढी हो जाए...मेरी बला से"..."मुझे क्या फर्क पड़ता है?"..."फिर?"..."उसके बाद जो मैडम जी ने जो अपनी तारीफें करनी शुरू की कि बस करती ही चली गई"..."कभी अपने सुन्दर सलोने चेहरे की...तो कभी अपनी कमसिन फिगर की तारीफ".."तुम चुपचाप सुनती रही?".."मैँने भी उसे चने के झाड़ पे चढाने में कोई कसर नहीं छोड़ी".."कैसे?"..."मैँने कह दिया कि तुम्हारी शक्ल तो बिलकुल कैटरीना कैफ से मिलती है"..."अरे वाह!...क्या सचमुच?"..."टट्टू..."..."तो फिर?".."अरे!..'कैटरीना' वो...जो अमेरिका में तूफान आया था"..."ओह!...और 'कैफ'?"मैँ हँसता हुआ बोला..."अपना शुद्ध खालिस हिन्दुस्तानी क्रिकेटर 'मोहम्मद कैफ' ...और कौन"..."हा...हा...हा"..."इस से बड़ी ड्रामेबाज औरत तो मैँने अपनी ज़िन्दगी में आज तक नहीं देखी"..."सीधी बात है!...काम ना करना पड़े किसी दूसरे के घर...इसलिए नौटंकी पे उतर आते हैँ लोग".."अरे यार!...क्यों बेकार में नाहक परेशान होती हो?"...."शारदा कह तो गई है कि बीस दिन के अन्दर-अन्दर वापिस लौटा लाऊँगी"..."क्यों झूठे सपने दिखा के मेरा दिल बहलाते हो?".."इतिहास गवाह है कि हमारे घर का गया नौकर कभी वापिस लौट के नहीं आया"..."पूरे सवा ग्यारह रुपए की बूँदी चढाऊँगी शनिवार वाले दिन...बजरंगबली के पुराने मन्दिर में जो ये वापिस आ जाएगी"..."फॉर यूअर काईंड इंफार्मेशन ...शनिवार वाले दिन शनिदेव को प्रसन्न किया जाता है ...ना कि बजरंगबली को"मैँ टोकता हुआ बोला..."सत वचन!..लेकिन...जो एक बार बोल दिया...सो...बोल दिया"..."अगली बार जब नौकरानी भागेगी तब मंगलवार वाले दिन शनिदेव को प्रसाद चढा के खुश कर देंगे...सिम्पल"..."सही है!...अभी आयी नहीं है और तुम फिर से भगाने के बारे में पहले सोचने लगी"..."गुड!...वैरी गुड"..."इसे कहते हैँ एडवांस्ड प्लैनिंग...लगी रहो"..."मुझे तो डाउट हो रहा है..कि कोई झारखंड-वारखंड नहीं ले के गई होगी उसे"..."ज़्यादा पैसों के लालच में यहीं दिल्ली में ही किसी और कोठी में लगवा दिया होगा काम पे"..."यही!...हाँ ..यही हुआ होगा....बिलकुल"..."कोई भरोसा नहीं इनका"..."छोड़ो उसे!...अच्छा हुआ जो अपने आप चली गई "..."वैसे भी अपने काबू से बाहर निकलती जा रही थी आजकल"..."हाँ!...ज़बान भी कुछ ज़्यादा ही टर्र-टर्र करने लगी थी उसकी"..."एक-एक काम के लिए कई-कई बार आवाज़ लगानी पड़ती थी उसे"..."जब आयी थी तो इतनी भोली कि बिजली का स्विच तक ऑन करना नहीं आता था उसे और अब...टीवी के रिमोर्ट के साथ छेड़खानी करना तो आम बात हो गई थी उसके लिए"..."याद है मुझे कि कैसे तुमने दिन रात एक कर के रोज़मर्रा के सारे काम सिखाए थे उसे"...."और अब जब अच्छी खासी ट्रेंड हो गयी तो ये शारदा की बच्ची ले उड़ी उसे"..."यही काम है इन प्लेसमैंट ऐजैंसियों का...अनट्रेंड को हम जैसों के यहाँ भेज के ट्रेंड करवाती हैँ...."फिर दूसरी जगह भेज के मोटे पैसे कमाती हैँ"..."मेरा कहा मानो तो बीति ताहिं बिसार के आगे की सोचो"..."मतलब?"..."भूल जाओ उसे और देख भाल के किसी अच्छी वाली को रख लो".."हाँ!..रख लूँ...जैसे धड़ाधड़ टपक रही हैँ ना आसमान से स्नो फॉल के माफिक".. "पता भी है कि कितनी शॉर्टेज चल रही है आजकल"..."जब से ये मुय्या 'आई.पी.एल'शुरू हुआ है ...काम वाली बाईयों का तो जैसे अकाल पड़ गया है"..."वो कैसे?".."कुछ एक तो बढती मँहगाई के चलते दिल्ली छोड़ होलम्बी कलाँ और राठधना जा के बस गई हैँ"..."और कुछ ने गर्मियों के इस सीज़न में अपने दाम दुगने से तिगुने तक बढा दिए हैँ"..."और ऊपर से नखरे देखो इन साहबज़ादियों के कि सुबह के बर्तन मंजवाने के लिए दोपहर दो-दो बजे तक इनका रस्ता तकना पड़ता है"..."इनके आने की आस में ना काम करते बनता है और ना ही खाली बैठे रहा जाता है "... "ऊपर से बिना बताए कब छुट्टी मार जाएँ...कुछ पता नहीं"..."लेकिन इस सब से 'आई.पी.एल'का क्या कनैक्शन?"..."अरे!...ऊपर वाली दोनों तरह की कैटेगरी से बचने वाली छम्मक छल्लो टाईप बाईयों ने अपने ऊपरी खर्चे निकालने के चक्कर में ...पार्ट टाईम में 'चीयर लीडर'का धन्धा चालू कर दिया है"..."चीयर लीडर माने?"..."अरे वही!...जो 'आई.पी.एल' के ट्वैंटी-ट्वैंटी मैचों में छोटे-छोटे कपड़ों में हर चौके या छक्के पर उछल-उछल कर फुदक रही होती हैँ"..."तो क्या ये भी छोटे-छोटे कपड़ों मे?...और इनको इतने बड़े मैचों में परफार्म करने का चाँस कैसे मिल गया?".."अरे!...वहाँ नहीं"..."तो फिर कहाँ?"..."इंटर मोहल्ला ट्वैंटी-ट्वैंटी क्रिकेट मैचों में साड़ी पहन के ही ठुमके लगा रही हैँ"..."बिलकुल आई.पी.एल की तर्ज पर ही मैच खेले जा रहे हैँ"..."लेकिन 'आई.पी.एल' में तो पैसे का बोलबाला है...बड़े-बड़े सैलीब्रिटीज़ ने खरीदा है टीमों को"..."तो क्या हुआ?"..."अपने यहाँ की टीमों को भी कोई ना कोई स्पाँसर कर रहा है"..."जैसे..?"..."जैसे बगल वाले मोहल्ले की टीम को घासी राम हलवाई स्पाँसर कर रहा है और...अपने मोहल्ले की टीम को तो छुन्नामल ज्वैलर स्पाँसर कर रहा है"..."घासी राम तो अपनी टीम को चाय समोसे फ्री में खिला-पिला रहा है"..."तो क्या छुन्ना मल भी अपनी ज्वैलरी बाँट रहा है?"..."उसे क्या अपना दिवालिया निकालना है जो ऐसी गलती करेगा?".."पूरे इलाके का माना हुआ खुर्राट बिज़नस मैन है वो"..."उसके बारे में तो मशहूर है कि अच्छी तरह से ठोक बजा के जाँचने परखने के बाद ही वो अपने खीस्से में से नोट ढीले करता है""तो?"..."क्रिकेट ग्राऊँड में अपने शोरूम के बैनर लगाने और मोहल्ले की दिवारों पर पोस्टर लगाने की एवज में....अपनी क्वालिस दे दी है लड़कों को घूमने फिरने के लिए विद शर्त ऑफ पच्चीस से तीस किलोमीटर पर डे"... "लेकिन कल ही तो मैँने अपने मोहल्ले के लौंडे लपाड़ों को टूटी-फूटी साईकिलों पे इधर-उधर हाँडते(घूमते) देखा था"..."वोही तो!...घाटा तो उसे बिलकुल बरदाश्त नहीं है"..."किसे?"..."अरे!...अपने छुन्नामल को...और किसे?"..."जहाँ अपनी टीम ने पहले मैच में ठीक से परफार्म नहीं किया...उसने फटाक से अल्टीमेटम दे दिया"..."फिर?"..."दूसरे मैच में भी कुछ खास नहीं कर पाने पर उसने अपने यहाँ के कैप्टन को अच्छी खासी झाड़ पिला और अपनी क्वालिस वापिस मँगवा ली"..."अच्छा!..हमारे कप्तान का थोबड़ा सूजा-सूजा सा लग रहा था"..."तो क्या बस दो ही टीमें भाग ले रही हैँ तुम्हारे उइस देसी 'आई.पी.एल' में?"..."नहीं!...तीन टीमें भाग ले रही हैँ"..."तीसरी टीम को कौन स्पाँसर कर रहा है?"..."तीसरे टीम को जब कोई और नहीं मिला तो मजबूरी में नन्दू धोबी से ही अपने को स्पाँसर करवा लिया"..."वो बेचारा तो अपना गुज़ारा ही बड़ी मुश्किल से करता होगा...वो क्या टट्टू स्पाँसर करेगा?".."अरे!...तुम्हें नहीं पता...पूरे तीन मोहल्लों में वही तो अकेला धोबी है जिसका काम चलता है बाकि सब तो वेल्ले बैठे रहते हैँ"..."ऐसा क्यों?"..."ज़बान का बड़ा मीठा है...हमेशा...जी.जी करके बात करता है..."बाकि किसी को तो इतनी तमीज़ भी नहीं है कि औरतों से कैसे बात की जाती है...हमेशा तूँ तड़ाक से बात करते हैँ".."और आजकल वैसे भी एकता कपूर के सीरियलों की वजह से टाईम ही किस औरत के पास है कि वो खुद कपड़े प्रैस करती फिरे?"..."सो!..सभी के घर से कपड़ॉं का गट्ठर बनता है और जा पहुँचता है सीधा धोबी के धोबी घाट में"..."खूब मोटी कमाई है उसकी"..."सुना है!...अब तो उसने नई आईटैन भी खरीद ली है" ..."नकद?"...."नहीं!...किश्तो पे"..."आजकल उसी से आता-जाता है"...."अरे वाह!...क्या ठाठ हैँ पट्ठे के"..."और नहीं तो क्या"....."उस दिन की याद है ना जब मैँ आपसे ज़िद कर रही थी अक्षरधाम मन्दिर घुमाने ले चलने के लिए और आपने गुस्से में साफ इनकार कर दिया था?"..."तो?..."..."पता नहीं इस मुय्ये धोबी के बच्चे को वो बात कैसे पता चल गई और बड़े मज़े से मुझसे कहने लगा कि... "भाभी जी!...अगर राजीव जी के पास टाईम नहीं है तो मैँ ही आपको अक्षरधाम मन्दिर ही घुमा लाता हूँ".."हुँह!..बड़ा आया मुझे घुमाने वाला...शक्ल देखी है कभी आईने में?""तुमने ज़रूर किसी से जिक्र किया होगा इस बात का तभी उसे पता चला होगा"..."मैँने भला किससे और क्यों जिक्र करना है?"..."अपनी बाई ही पास खड़ी-खड़ी सब सुन रही थी..उसी ने कहा होगा".."इनका तो काम ही यही होता है...इधर की उधर लगाओ और...उधर की इधर".."जब से ये मुय्या 'आई.पी.एल' शुरू हुआ है..और दिमाग चढा गया है इन माईयों का"..."मेरी राय में तो बैन लगा देना चाहिए इन चीयर लीडरों पर"..."सारा का सारा माहौल खराब कर के रख छोड़ा है"..."कौन सी वालियों ने?"..."टी.वी वालियों ने या फिर ये अपनी देसी बालाओं ने?"..."दोनों की ही बात कर रही हूँ"..."उन्होंने क्रिकेट ग्राऊँड में माहौल बिगाड़ के रखा है तो इन्होंने यहाँ...गलियों में "..."लोकल वालियों से तो तुम्हारी खुँदक समझ आती है लेकिन इन इन 'टी.वी'वालियों से तुम्हें क्या परेशानी है?"...."अपना अच्छा भला खिलाड़ियों और दर्शकों...दोनों को जोश दिला रही हैँ"..."वोही तो..."..."वो वहाँ क्रिकेट ग्राऊँड में मिनी स्कर्टों में फुदक रही होती हैँ और यहाँ हम औरतों के दिल ओ दिमाग में हमेशा धुक्क-धुक्क होती रहती है"..."हाथ में आए पँछी के उड़ चले जाने का खतरा?"..."और नहीं तो क्या?"..."क्या जादू कर जाएँ?...कुछ पता नहीं इन गोरी चिट्टी फिरंगी मेमों का"..."और वैसे भी आजकल मन बदलते देर कहाँ लगती है?"..."अरे!..सबके बस की कहाँ है?"..."इतनी सस्ती भी नहीं है वे कि कोई भी ऐरा गैरा नत्थू खैरा फटाक से अपना बटुआ खोले और झटाक से ले उड़े इन्हें"..."हाँ!...'आई.पी.एल'खिलाड़ियों की और बात है...बेइंतिहा पैसा मिला है उन्हें"..."आराम से अफोर्ड कर लेंगे लेकिन...यहाँ अपने मोहल्ला छाप खिलंदड़ों का क्या?"..."उनके पास तो अपने पल्ले से मूँगफली खाने के तक के पैसे नहीं मिलने के...वो भला क्या खाक खर्चा करेंगे?"..."और सबसे बड़ी बात इन दोनों टाईप की आईटमों का आपस में क्या मुकाबला?"..."कहाँ वो गोरी चिट्टी...एकदम मॉड...छोटे-छोटे कपड़ों में नज़र आने वाली सैक्सी बालाएँ और....कहाँ ये एकदम सीधी-साधी सूट या फिर साड़ी में लिपटी निपट गाँव की गँवारने?""ना!...कोई मेल नहीं है इनका"..."लेकिन जब गधी पे दिला आता है ना...तो सोनपरी की चमक भी फीकी दिखाई देने लगती है"... "याद नहीं?...अभी पिछले हफ्ते ही तो सामने वाले शर्मा जी की मैडम अपने ड्राईवर के साथ उड़नछू हो गई थी और..वो गुप्ता जी भी तो अपनी बाई के साथ खूब हँस-हँस के बाते कर रहे होते हैँ आजकल"..."अच्छा!...तभी रोज़ नए-नए सूट पहने नज़र आती है"..."तुमने कब से ताड़ना शुरू कर दिया उसे?"..."वो तो!...ऐसे ही एक दिन वो सब्ज़ी ले रही थी...तभी अचानक नज़र पड़ गई"..."सब समझती हूँ मैँ...अचनाक नज़र पड़ गयी"..."जब मेरी नज़र किसी पे पड़ेगी ना बच्चू!...तब पता चलेगा".."कुछ तो अपनी उम्र का ख्याल करो...अगले महीने पूरे चालीस के हो जाओगे"..."अब उसे कैसे बताता कि 'ऐट दा एज ऑफ फौर्टी...मैन बिकम्ज़ नॉटी?'"..."एक बात और ...तुम्हारे इन सो कॉल्ड मॉड कपड़ों को पहन नंगपना करने मात्र से ही कोई सैक्सी नहीं हो जाता"..."तो फिर कैसे हुआ जाता है...सैक्सी?"..."ज़रा बताओ तो...एक्सप्लेन इट क्लीयरली"..."देखो!...चैलैंज मत करो हमें"..."हम हिन्दुस्तानी औरतें साड़ी और सूट में भी अपनी कातिल अदाएँ दिखा गज़ब ढा सकती हैँ"..."सच ही तो कह रही है संजू!...तभी आजकल वो गुप्ता जी की कामवाली बाई...हर समय आँखों में छायी रहती है"मैँ मन ही मन सोचने लगा..."तो क्या अपनी देसी चीयर लीडरस भी?"मैँ बात बदलते हुए बोला..."अब किसी के चेहरे पे थोड़ी लिखा होता है"..."पैसा देख मन बदलते देर कहाँ लगती है?"..."बिलकुल सही बात!...पैसा बड़ा बलवान है"...."अपना दर्विड़ भी तो अकृत पैसा मिलता देख ट्वैंटी-ट्वैंटी का हिमायती ना होने के बावजूद....'माल्या जी' की डुगडुगी पे कलाबाजियाँ खाने को तैयार हो गया" "जब ऐसे बड़े बड़े लोग पैसा देख फिसलने लगे तो इन बेचारी कामवाली बाईयों की क्या औकात?"..."इन्होंने तो सीधे-सीधे छलांग ही लगा देनी है पैसे को जोहड़(तालाब) में"..."हम्म!...ये बात तो है"..."और ऊपर से दोनों जगह मैच देखने वाले तो हाड़-माँस के आम इनसान ही हैँ ना?..."गल्ती हो भी सकती है"..."वो वहाँ मैदान में जोश-जोश में उतावले होते हुए मतवाले हो उठेंगे और बाद में घर आ के नाहक अपनी बीवियों को परेशान करेंगे"..."इसलिए मैँ कहती हूँ कि सभी पर ना सही लेकिन इन देसी चीयर लीडरस पर तो हमेशा के लिए बैन लगना चाहिए".."तभी अक्ल ठिकाने आएगी इनकी"..."मेरा बस चले तो अभी के अभी कच्चा चबा जाऊँ इस शारदा की बच्ची को"..."उल्लू की पट्ठी !...औकात ना होते हुए भी ऐसे बन ठन के अकड़ के चलती मानो किसी स्टेट की महरानी हो"..."पता जो है उसे कि उसके बगैर गुज़ारा नहीं है किसी का".."एक मन तो करता है कि अभी के अभी जा के सीधा पुलिस में कम्प्लेंट कर दूँ उसकी"..."अरे!...कुछ नहीं होगा वहाँ भी....उल्टे पुलिस ही चढ बैठेगी हम पर"..."किस जुर्म में?"..."अरे!...मालुम तो है तुम्हें...नाबालिग थी अपनी बाई और ऊपर से हमने उसकी पुलिस वैरीफिकेशन भी नहीं करवाई हुई थी"..."हमने क्या?...पूरे मोहल्ले में सिर्फ सॉंगवान जी का ही घर है जिन्होंने सारी की सारी फारमैलिटीज़ पूरी की हैँ"..."सही बात!...कभी मूड बना के थाने जाओ भी तो कहते हैँ...पहले लेटेस्ट फोटो ले के आओ"..."पागल के बच्चे!...कभी पूछते हैँ....कि कौन कौन सी भाषाएँ बोलती है?"..."तुमने इससे उपनिष्द पढवाने हैँ?...या फिर कोई गूढ अनुवाद कराना है?"..."बेतुके सवाल ऐसे समझदारी से करेंगे मानों इन सा इंटलैक्चुअल बन्दा पूरे जहाँ में कोई हो ही नहीं"..."उम्र कितनी है?"..."पढी-लिखी है के नहीं?"..."अगर है!...तो कहाँ तक पढी है?"..."अरे!...तुमने क्या उस से डॉक्ट्रेट करवानी है जो ये सब सवालात कर रहे हो?"..."स्साले!...सनकी कहीं के...कभी-कभी तो दोनों हाथों के फिँगर प्रिंट ला के देने तक का फरमान जारी कर देते हैँ"..."अब इनके तुगलकी आदेश के चक्कर में अपने हाथ नीले करते फिरो"..."हमें कोई और काम है कि नहीं?"..."उनके कहे अनुसार सब कर भी दो तो कभी फलानी कमी निकाल देते हैँ तो कभी ढीमकी"..."पहले तो कभी अपने यहाँ की पुलिस इतनी मुस्तैद नहीं दिखी थी...जैसी आजकल दिख रही है"..."अच्छी भली को पता नहीं अचानक क्या बिमारी लग गयी?"..."तुम्हारा कहना सही है!...आमतौर पर तो अपने यहाँ की पुलिस ढुलमुल रवैया ही अपनाती है लेकिन...जब कभी कहीं कोई तगड़ी वारदात होती है...तब इन पर ऊपर से डण्डा चढता है और तभी ये पूरी फुल्ल फुल्ल मुस्तैदी दिखाते हैँ"..."वैरीफिकेशन के काम में देरी लगाने की शिकायत करो तो जवाब मिलता है कि 'कानून' से काम करने में तो वक्त लगता ही है"..."लेकिन कोई ये बताएगा कि ये सॉंगवान का बच्चा कैसे आधे घंटे में ही सारा काम निबटा आया था?"..."पट्ठे ने!...ज़रूर चढावा चढाया होगा"..."यही सब तो प्लेसमैंट एजेंसी वाले भी करते हैँ"..."तभी तो पुलिस भी इनकी छोटी-मोटी गल्तियों को नज़र अन्दाज़ करती है और....इसी कारण बिना किसी डर...बिना किसी खौफ के इनका धन्धा दिन दूनी रात चौगुनी तेज़ी से फलफूल रहा है"..."अब तो कम समय में ज़्यादा कमाई के चक्कर में बहुत से बेरोज़गार मर्द-औरत इस धन्धे धड़ाधड़ उतरते जा रहे हैँ"..."हम्म!...इसीलिए आजकल इन तथाकथित प्लेसमैंट ऐजेंसियों की बाड़ सी आ गई है"..."घरेलू नौकरानियों की डिमांड ही इतनी ज़्यादा है कि पूरा ज़ोर लगाने पर भी पूर्ति नहीं हो पा रही है"..."तभी तो आजकल इन प्लेसमैंट वालों के भाव बढे हुए हैँ"..."कहने को तो ये कहते हैँ कि हम समाजसेवा का काम कर रहे हैँ"..."गरीब...मज़लूमों को रोज़गार उपलब्ध करवा रहे हैँ लेकिन इनसा कमीना मैँने आज तक नहीं देखा"...."वो कैसे?"..."अरे!...इस प्लेसमैंट की आड़ में ये जो जो अनैतिक काम होता है ...उनके बारे में जो कोई भी सुनेगा तो हैरान रह जाएगा"..."अनैतिक काम?"..."और नहीं तो क्या?"..."देह-व्यापार से लेकर स्मगलिंग तक कोई भी धन्धा इनसे अछूता नहीं है"..."ओह!..."जिन बच्चों की अभी पढने-लिखने की उम्र है उनसे ज़बर्दस्ती इधर का माल उधर कराया जाता है"... "कैसा माल?"..."यही!...स्मैक...ब्राऊन शुगर...पोस्त से लेकर छोटे-मोटे हथियार तक ...कुछ भी हो सकता है"..."ओह!...स्मैक...ब्राऊन शुगर से लेकर हथियार तक...बाप रे"..."अरे!...ये प्लेसमैंट का धन्धा तो अपनी घिनौनी करतूतों को छुपाने के लिए करते हैँ"..."किसी से शादी करने या करवा देने का लालच देकर....तो किसी को मोटी तनख्वाह पे आरामदायक नौकरी दिलवाने का झुनझुना थमा कर ये अपने प्यादे तैयार करते हैँ"... "लाया गया तो उन बेचारों को किसी और काम के लिए होता है और झोंक दिया जाता है किसी और काम की भट्ठी में"..."क्या सच?"..."हो भी सकता है"..."मतलब?"...अभी तो तुम ये सब कह रहे थे...वो सब क्या था?"..."वो तो यार!...मैँ ऐसे ही...मज़ाक..."तो इसका मतलब...इतनी देर से झूठ पे झूठ बके चले जा रहे थे?"..."और क्या करता?"..."तुम सुबह से कामवाली बाई को लेकर परेशान हुए बैठी थी"..."तो?"..."तुम्हारा ध्यान बटाने के लिए"..."हुँह".."लेकिन मेरी सभी बातें झूठ नहीं हैँ और...बाकी भी सच हो सकती हैँ...कसम से"...."वो कैसे?"..."कलयुग है ये और इसमें कुछ भी हो सकता है क्योंकि....ज़माना बड़ा खराब है"..."हाँ!...ये तो है"..."सच में!..ज़माना बड़ा खराब है"..."ट्रिंग..ट्रिग"..."देखना तो!...किसका फोन है?"..."हैलो....."कौन?"..."अरे!...चम्पा....कहाँ है बेटा तू?"...."दिल्ली में?"..."लेकिन बेटा!...तू तो गाँव जाने की कह कर गई थी ना?"..."अच्छा!...शारदा नहीं ले के गई"..."अभी कहाँ है बेटा?"..."क्या कहा?...पता नहीं"..."बेटा!...रो मत...चुप हो जा"..."यहीं आ जा हमारे पास"...."पता मालुम है ना बेटा?"..."अच्छी तरह तो याद करवाया था ना तुझे?"..."हाँ!...ठीक है"..."एक काम कर बेटा!...किसी रिक्शे या फिर ऑटो वाले को हमारे घर का पता बता दे"..."ठीक है बेटा!...किराया हम यहीं दे देंगे"..."तू चिंता ना कर"..."हम तो तुझे पहले ही रोक रहे थे ना लेकिन...क्या करें?...वो शारदा नहीं मानी ना"..."ठीक है!...ठीक है बेटा"...."हैलो..हैलो..."क्या हुआ?"..."फोन क्यों काट दिया बेटा?"..."क्या हुआ?"...."चम्पा का फोन था"..."अच्छा...क्या कह रही थी?"..."यही दिल्ली में ही है"..."किसी कोठी में काम कर रही है"...."लेकिन वो तो गाँव जानी की कह कर गई थी ना?"..."मैँ ना कहती थी कि सब ड्रामा है...यहीं कहीं लगवा दिया होगा"...."कह तो रही है...कि आ रही हूँ"..."कहाँ से फोन किया था?"..."किसी 'पी.सी.ओ'से कर रही थी"..."कह तो रही थी कि अभी आधे घंटे में पहुँच जाऊगी"..."हे ऊपरवाले!...तेरा लाख-लाख शुक्र है"..."अब तो खुश?"..."बहुत"..."एक मिनट!...फोन तो देना"..."कहाँ मिलाना है?....मैँ मिला देती हूँ"..."पुलिस स्टेशन"..."किसलिए?"..."वैरीफिकेशन..."..."छोड़ो ना!...कौन पूछता है?"...

***राजीव तनेजा***

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